यह फिल्म ध्यान के लाभ एवं तकनिक का विस्तुत विवेचन है । .... ध्यान के गत्यात्मक अनुभवों पर आधारित यह फिल्म व्यक्ति को आध्यात्मिक अनुभव प्राप्ति के लिए अवश्य प्रेरित करेगी ।
समाज में जिस तरह के नकारात्मक परिवर्तन आये है, उस आधार पर विधि-व्यवस्था और मानव के विचार एवं जीवनशैली भी नकारात्मकता का आकार ग्रहण कर चुंकी है। शायद यही विकास और विकसित होने की परिभाषा है। इस परिभाषा ने क्या नहीं बदला हैं ? ... मन भी बदला। माथा भी बदला और देखते-देखते इस धरती की काया भी बदल ड़ाली है। भोग-बहुभोग की लालसा ने को उत्तरोत्तर अभाव की मानसिकता के घेरों में सिमट लिया है। चारो तरफ लुट मची है। जल प्रवाह सिकुड रहे हैं। जंगलों का दायरा सिमट रहा हैं। जुगून-पंतगे-केंचुए सब कही खो से रहें हैं। बहुमूल्य वनस्पतीयां , जीव-जंतुओं की प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं। साथ ही साथ अंतरिक खुशहाली का अनुभव भी गुम हो रहा है। बच गया है , तो वह है.. नैसर्गिक संसाधनों की कमी का आभास और भोग-अतिभोग के लिए प्रतिस्पर्धा और प्रतिहिंसा के साथ-साथ उपभोग के नये-नये रास्तों और नये-नये उपकरणों का निजात। एक तरफ असिम संग्रह है और दूसरी ओर अभाव ग्रस्तों का संघर्ष। एक तरफ प्राकृतिक संसाधनों की कमी का आभास है और दूसरी ओर भोग-बहुभोग हेतु कृत्रिम उपभोग के उपकरणों का सजता अंबार है। जिससे न हव
आज के समय में मेटाबॉलिज्म को बढ़ाने के लिए आपको हर 2 से 3 घंटे में कुछ न कुछ खाना खाने की सलाह दी जाती है. मगर क्या कुछ घंटों में खाने से मेटाबॉल्जिम को बढ़ाने में मदद मिलती है ? हर 3 घंटे में कुछ न कुछ खाने से मेटाबॉल्जिम बढ़ेगा या नहीं ये तो पता नहीं , परंतु ऐसे बार-बार खाने से दिन भर की कैलोरी जरूर बढ़ जाएगी। अधिक भोजन आपके शरीर में विशेष रूप से अंगों के आसपास ज्यादा फैट का निर्माण करके आपको मेटाबॉलिक स्ट्रेस की तरफ ले जाता है और यह इंसुलिन प्रतिरोध को भी बढ़ावा देता है । ऐसे में फास्टिंग या उपवास एक इंसान की पूरी हेल्थ में सुधार करता है । जब आप खाना खाना बंद कर देते हैं , तो 12 घंटे से 36 घंटे तक कार्बोहाइड्रेट फ्यूल होता है । इस लिए आपका शरीर ऊर्जा के स्रोत के लिए फैट बनाता है , इसे " मेटाबॉलिक स्विच" कहते हैं । इसी वजह से इंटरमिटेंट फास्टिंग के दौरान आपको अनुशंसित 16 घंटे के उपवास की सलाह दी जाती है । तो आइए आज हम आपको इंटरमिटेंट फास्टिंग के समय और खाने के पैटर्न के बारे में बताते हैं । इंटरमिटेंट फास्टिंग इंसान की
महर्षी वाग्भट द्वारा रचित ‘ अष्टांग ह्दय ’ आयुर्वेद के प्राचीन ग्रंथों में से एक है। आयुर्वेद के मूल प्रयोजन की सिद्धि हेतु यह ग्रंथ भी बहुत उपयुक्त रहा है। इस ग्रंथ में ‘ दिनचर्या ’ नामक अध्याय में स्वास्थ्य वृद्धि एवं रोग निवृत्ति हेतु दिनचर्या के कुछ विशेष नियमों का वर्णन है। जो कि प्रकृति के नियमों को जानकर , प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित कर , व्यक्ति को मनो-शारीरिक रूप से सुखी , स्वस्थ एवं दीर्घ आयु प्रदान करने का मार्ग प्रशस्त करते है। स्वास्थ्य की अभिलाषा रखनेवाले व्यक्तियों हेतु दिनचर्या के नियमों को निम्न लिखित अनुक्रम से प्रस्तुत किया जा रहा है। आशा है इन निर्देशों के अनुसरण से आप निश्चित लाभान्वित होगे। तो चलिए आज दिनचर्या के निर्देशों को जानने का प्रयास करते है – प्रथत: आयु की रक्षा के लिए सभी स्वस्थ्य व्यक्तियों को प्रात: ब्रह्ममुहर्त ( सूर्योदय से 45 मिनट पूर्व ) में निद्रा त्यागकर उठना चाहिए तथा शरीर चिंता को त्याग कर सर्व प्रथम ईश्वर का स्मरण करना चाहिए । प्राकृतिक रूप से उत्पन मल-मूत्र का त्याग करने के पश्च्यात , पर्याप्त मात्रा
प्राचीन काल दार्शनिक विकास की आरंभिक अवस्था का काल रहा। इस काल में दृश्यमान जगत (मेटाफिजिक्स) की सूक्ष्म मीमांसा से सांख्य दर्शन ने दार्शनिक प्रश्नों का हल ढूंढ़ने का प्रयास किया। जिसके फल स्वरूप विश्व के मूल में मौजूद तत्वों अर्थात दृश्यमान वस्तुओं की पहचान कर उनकी संख्या निर्धारित करने का प्रयास हुआ। जगत में विद्यमान रुपात्मक और अरूपात्मक सत्तायें आकाश , वायु , अग्नि , जल एवं पृथ्वी। इन सत्ताओं के विषय शब्द , स्पर्श , रुप , रस , गंध। इन से निर्मित शरीर और उनकी पंच ज्ञानेन्द्रियाँ - कान , नाक , त्वचा , नेत्र और जिह्वा तथा पंच कर्मेद्रियाँ हात , पैर , उपस्थ , पायु , वाक् और मन , बुद्धि , चित्त अहंकार के अलावा एक परम चैतन्य सत्ता अर्थात पुरुष , इन सबको सांख्य ने जड़ और चैतन्य प्रकृति यह संज्ञा देकर उनका वर्गिकरण करने का प्रयास किया। महाभारत आदि प्राचीन साहित्य में उपलब्ध साक्ष के आधार पर प्राचीन सांख्य ईश्वर को 26 वाँ तत्त्व मानता रहा है। इस दृष्टी से सांख्य ईश्वरवादी दर्शन रहा है। परन्तु परिवर्ति सांख्य में ईश्वर का कोई स्थान नहीं है। सांख्य ने सृष्टी की उत्त्पति
गिलोय (Tinospora Cordifolia) एक प्रकार की बेल है जो आमतौर पर जगंलों-झाड़ियों में पाई जाती है। प्राचीन काल से ही गिलोय को एक आयुर्वेदिक औषधि के रुप में इस्तेमाल किया जाता रहा है। गिलोय के फायदों को देखते हुए ही हाल के कुछ सालों से अब लोगों में इसके प्रति जागरुकता बढ़ी है और अब लोग गिलोय की बेल अपने घरों में लगाने लगे हैं। हालांकि अभी भी अधिकांश लोग गिलोय की पहचान ठीक से नहीं कर पाते हैं। आपकी जानकारी के लिए बता दें कि गिलोय की पहचान करना बहुत आसान है। इसकी पत्तियों का आकार पान के पत्तों के जैसा होता है और इनका रंग गाढ़ा हरा होता है। आप गिलोय को सजावटी पौधे के रुप में भी अपने घरों में लगा सकते हैं। गिलोय को गुडूची (Guduchi), अमृता आदि नामों से भी जाना जाता है। आयुर्वेद के अनुसार गिलोय की बेल जिस पेड़ पर चढ़ती है उसके गुणों को भी अपने अंदर समाहित कर लेती है, इसलिए नीम के पेड़ पर चढ़ी गिलोय की बेल को औषधि के लिहाज से सर्वोत्तम माना जाता है। इसे नीम गिलोय के नाम से जाना जाता है। गिलोय में पाए जाने वाले पोषक तत्व : गिलोय में गिलोइन नामक ग्लूकोसाइड और टीनोस्पोरिन, पामेरिन एवं टीनोस्पोरिक एसिड प
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