आयुर्वेद दिनचर्या : स्वास्थ्य वृध्दि और रोग निवृति का सोपान

   
महर्षी वाग्‍भट द्वारा रचित अष्‍टांग ह्दयआयुर्वेद के प्राचीन ग्रंथों में से एक है। आयुर्वेद के मूल प्रयोजन की सिद्धि हेतु यह ग्रंथ भी बहुत उपयुक्‍त रहा है। इस ग्रंथ में दिनचर्यानामक अध्‍याय में स्‍वास्‍थ्‍य वृद्धि एवं रोग निवृत्ति हेतु दिनचर्या के कुछ विशेष नियमों का वर्णन है। जो कि प्रकृति के नियमों को जानकर, प्रकृति के साथ सामंजस्‍य स्‍थापित कर, व्‍यक्ति को मनो-शारीरिक रूप से सुखी, स्‍वस्‍थ एवं दीर्घ आयु प्रदान करने का मार्ग प्रशस्‍त करते है। स्‍वास्‍थ्‍य की अभिलाषा रखनेवाले व्‍यक्तियों हेतु दिनचर्या के नियमों को निम्‍न लिखित अनुक्रम से प्रस्‍तुत किया जा रहा है। आशा है इन निर्देशों के अनुसरण से आप नि‍श्चित लाभान्वित होगे। तो चलिए आज दिनचर्या के निर्देशों को जानने का प्रयास करते है –
  • प्रथत: आयु की रक्षा के लिए सभी स्‍वस्‍थ्‍य व्‍यक्तियों को प्रात: ब्रह्ममुहर्त (सूर्योदय से 45 मिनट पूर्व) में निद्रा त्यागकर उठना चाहिए तथा शरीर चिंता को त्याग कर सर्व प्रथम ईश्वर का स्मरण करना चाहिए ।
  • प्राकृतिक रूप से उत्पन मल-मूत्र का त्याग करने के पश्च्यात, पर्याप्त मात्रा में सुखोष्‍ण जल सेवन करें और व्यापक रूप से यौगिक शुद्धि क्रियाओं का अनुसरण करना चाहिए। किन्‍तु शरीर के मल-मुत्रादि अधारणीय वेगों को बलपूर्वक रोकने वा निकालने की चेष्ठा नहीं करनी चाहिए ।
  • देह-शुद्धी, स्वास्थ्य-वृद्धि एवं रोग निवृत्ति हेतु व्यापक शुद्धि क्रिया का विधान है। अत: प्राकृतिक शौचकर्मों के उपरांत हृदय, कोष्‍ठ आदि अंगों की शुद्धि हेतु सप्‍ताह में 3 दिन कुंजल क्रिया एवं एक माह में एक बार शंखप्रशालन आदि का अनुसरण करना चाहिए।
  • मुख एवं दांतों की सफाई हेतु कषाय-कटु-तिक्त वृक्षों से निर्मित दातुन अथवा मंजन का उपयोग करना चाहिए। किसी कारणवश जो दातुन एवं मंजन नही कर सकते है, वह जल के बारह कुल्‍लों से मुखशुद्धि कर सकते है। जीभ छलनी से जिह्वा का निर्लेखन कर जीभ की शुद्ध‍ि करना प्रशस्‍त है ।
  • नासा मार्ग की शुद्धि हेतु रात्रि के समय नासा मार्ग में शुद्ध देसी गाय के घी की बुंदें डालकर नासा मार्ग को स्निग्‍ध करें तथा सुबह जलनेती द्वारा नासा मार्ग को शुद्ध कर लें।
  • नेत्र आग्‍नेय है उनें कफ से बचाने हेतु प्रतिदिन शुद्ध देसी गाय के घी से नेत्र को स्निग्‍ध कर, प्रात: त्रिफला के क्वाथ से उन्‍हें धो लेना चाहिए। कभी कभी सौविर अंजन (काजल) का प्रयोग भी करना चाहिए ।
  • अकाल में आनेवाली वृद्धावस्‍था में, अधिक परिश्रम के कारण उत्‍पन्‍न थकान दूर करने, शरीर की पुष्टि, मन की प्रसन्‍नता, त्‍वचा की सुंदरता, सूख पूर्वक निंद और दीर्घ आयु की प्राप्ति के लिए प्रतिदिन विशिष्ट तेल अथवा घी से शरीर की मसाज करें। विशेष रूप से कान, सिर और पैरों की मालिश कर नाभी में तेल छोडें ।[1]किन्‍तु कफ एवं अजीर्ण से पीड़ित रोगी को अभ्‍यंग नहीं करना चाहिए।
  • मेदवृद्धि का क्षय, शरीर में लघुता, कार्य करने का सामर्थ्‍य तथा अग्नि की दिप्‍ती बढ़ानेके साथ साथ शरीर के अंग-अवयवों की मजबुतिके लिए प्रतिदिन अर्धशक्ति अनुसार योगाभ्यास, प्राणायाम वा श्रमाभ्यास करें। अत्‍याधिक व्‍यायम से तृष्‍णा, क्षय, प्रतमक, श्‍वास, रक्‍तपित्त, श्रम, क्‍लम, मानसिक दौबल्‍य, ज्‍वर, वमन आदि के लक्षण उत्‍पन्‍न होते है। अत: वात, पित्त के रोगी, बालक, वृद्ध एवं अजीर्ण से पीड़ित रोगीयों के अतिरिक्‍त अन्‍यों को भी अत्‍यांधिक व्‍यायाम वा परिश्रम करना, बोलना, हंसना, चलना, जागना और मैथुन का त्‍याग करना चाहिए। व्‍यायाम करने वाले व्‍यक्ति को दूध-घी का उचित मात्रा में सेवन करना अनिवार्य है । [2]
  • व्‍यायामादि के उपरान्‍त अंग-प्रत्‍यांग की स्थिरता, त्‍वचा कि सुंदरता, तैलिय अंश एवं वृद्ध कफ का विलयन हेतु साबुन आदि की जगह वानस्पतिक औषधियों से युक्त उबटन आदि लगाकर सुखोष्ण जल से स्नान करना चाहिए। इससे त्‍वचा के रोमछिद्र खुलते है, त्‍वचा का स्‍वास्‍थ्‍य निखरता है, आयु की वृद्धि होती है, शरीर में बल बढ़ता है, पसीने की दुर्गंध तथा खुजली आदि दूर होते है तथा भूख की भी वृद्धि होती है।
  • स्‍नान से शरीर में वायु की तत्‍काल वृद्धि होती है। वायु के साथ-साथ पित्त एवं कफ का संतुलन भी बिगडता है। अत: मुख का लकवा, नेत्ररोग, मुखरोग, कर्णरोग, अतिसार, अर्जिण की स्थिति में एवं भोजन के तुरंत बाद कभी भी स्‍नान नहीं करना चाहिए ।
  • प्रात: सूर्योदय से पूर्व और शाम सूर्यास्त के समय चाय-काफी आदि विषाक्त पेयों की जगह आरोग्य-प्रदायी क्वाथ या हर्बल चाय का सेवन करना चाहिए।
  • पूर्व में किये गए भोजन के पचने पर, जिस ऋतू में जो तत्व प्रधान हो उस तत्व का आहार त्याज्य जानकर, अपनी आयु, अवस्था, प्रकृति को अनुकूल शुद्ध, सात्विक, पोषक, ताजा और सादा, पचने में हलका, विषाक्त रसायनों से मुक्त और जिस देश में और जिस ऋतू में जो साग-सब्जियां-फल-मूल आदि उत्पन्न होते हैं उनका युक्ति पूर्वक सेवन करना चाहिए।
  • भोजन के पूर्व भी सुखोष्ण जल से व्यापक शौच क्रिया[3]का अनुसरण करना चाहिए। अकेले भोजन करने की अपेक्षा पशु-पक्षियों के लिए अन्न का हिस्सा निकाल कर, परिवार के सदस्‍यों के साथ सम्मिलित रूप से भोजन करना चाहिए।
  • भोजन के समय भोजन की गुणवत्ता, भोजन बनाने, परोसने व खानेवाले का भाव अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। अत: इन बातों को स्मरण कर शांत एवं सद्भावना के साथ प्रसन्न मन से भोजन ग्रहण करना चाहिए ।
  • दक्षिण नासा से श्वास- प्रवाह हो रहा हो तब भोजन करना अच्छा हैं, क्योकि ऐसे समय में पाचन क्रिया में सहायक ग्रंथियों से यतेष्ट रस निर्गत होता हैं और भोजन का पाचन व्यवस्थित होता हैं।
  • सुबह के नास्ते में गेहूं की घास का क्लोरोफिल युक्त रस, ताजी हरी सब्जियों, फलों का स्वरस, सूप, संस्कारित दूध अथवा रात्रि में भिगोकर फुलाया गया अंकुरित अन्न का सुझाव अनुसार सेवन करना अच्‍छा होता है ।
  • दोपहर व रात्रि के भोजन में प्रथम साग, सब्जियों का सलाद पर्याप्त मात्रा में सेवन करें तद्उपरान्त भोजन ग्रहण करना चाहिए । दोपहर भोजन के बाद मठ्ठा और रात्रि में संस्कारित दूध सेवन करने योग्य हैं । किन्तु मौसम के फलों को भोजन के साथ खाना अनुचित हैं ।
  • शरीर में रोग और मन में स्वाभाविक रूप से शोक उत्पन्न करनेवाले चीनी-चाय-कॉफी-पेप्सी-कोक-मद्य, बीडी, सिगारेट, तम्बाकू, रज व वीर्य द्वारा उत्पन्न अंडा-मांस-मच्छली आदि अपवित्र अन्न, ऋतू के विपरीत, अधिक समय बीत जाने के कारण बासी, रसविहीन, सुखा-सत्व विहीन, जीव-जंतुओं द्वारा खाया हुआ-जूठा, अत्यधिक गरिष्ट-गुरुपाकी-विष्टम्भी-विरुद्ध-अभिष्यंदि-असात्म्य-दुष्ट-अन्न, जिनके सेवन से शरीर में दाह/जलन उत्पन्न होती हो ऐसे अत्यधिक उष्ण-तिक्ष्ण-कटु-अम्ल-पदार्थ, मिर्च-मसालें, हिंग, लहसुन, प्याज, आद्रक, सरसों, बैंगन, तेल में तले-भुजे पदार्थ, आचार-मुरम्बें एवं समुद्री नमक आदि पदार्थ का सेवन नही करे । अधिक प्रकार के व्‍यंजनों को एक समय में सेवन करना भी अहितकर होता है अत: एक ही समय पर बहु प्रकार के भोजन का सेवन नहीं करना चाहिए ।
हरित सब्जी

  • तैल मालिश से त्‍वचा के दोष दूर करता है किन्‍तु भक्षण से त्‍वचा के दोष उत्‍पन्‍न करता है। अत: तेल का अत्‍याधिक सेवन नहीं करना चाहिए। सरसो एवं सरसो जातिय पदार्थ का उपयोग कम से कम करना चाहिए ।
  • भोजन की मात्रा व्यक्ति की पाचन क्षमता पर निर्भर करती हैं। अत: प्रत्येक व्यक्ति को सदैव पाचन क्षमता के अनुसार तथा भूक से थोडा कम ही भोजन का सेवन करना चाहिए।
  • भोजन के तुरंत बाद व्यक्ति को शारीरिक वा मानसिक श्रम नहीं करना चाहिए । 8 श्वास सीधे पीठ के बल, 16 श्वास दाई करवट व  62 श्वास बाई करवट लेटकर 10 मिनट वज्रासन में बैठ कर विश्राम करना चाहिए तद् पश्चात् अपने कार्य में लगना चाहिए ।
  • दिवस में निद्रा व रात्रि में जागरण वर्जनीय है । रात्रि में जगना पड़े तो दुसरे दिन भोजन से पूर्व थोड़ी देर के लिए अल्‍प मात्र में शयन किया जा सकता है । किन्‍तु दिन में भोजन के उपरान्‍त स्‍वस्‍थ व्‍यक्ति को निद्रा का सेवन नहीं करना चाहिए ।
  • दोपहर के भोजन के पांच घंटे बाद भूक लगने पर आप ताजी हरी सब्जियों का स्वरस, सूप, फल, दूध आदि का अल्‍प मात्रा में अथवा चिकित्‍सकिय निर्देशानुसार ले सकते हैं ।
  • जल जीवनीय वस्तू हैं उसे निरंतन पिने का विधान है फिर भी प्यास की स्वाभाविक अवस्था में भी उसे थोड़ी-थोड़ी मात्रा में ही पीना चाहिए । एक समय में जल का सेवन की अधिक मात्रा भी अहितकर होती है ।
  • भोजन से पूर्व, मध्य व अन्त में जल पीने से क्रमश: व्यक्ति कृश, सम और स्थूल होता है । अत: आवश्यकता होने पर भोजन के मध्य अल्प मात्रा में जल पिया जा सकता है । किन्तु भोजन के आधा घंटा पूर्व और भोजन के आधा घंटा बाद तक जल नहीं पीना चाहिए ।
  • देश-काल के आधार पर जल हित और अहितकर होता है । अत: जल को उबालकर उपयोग में लेना चाहिए । उबला हुआ जल 12 घंटे के पश्‍चात सेवन करने योग्‍य नहीं होता है । अत: एैसे जल का सेवन नहीं करना चाहिए ।
  • मन्दाग्नि, गुल्म, पांडु, उदररोग, जलोदर, वृध्दि, अतिसार, ग्रहणी, शोथ आदि अवस्थामें जल पीना वर्ज्‍य है । अत: ऐसी स्थितियों में औषधियों से सिद्ध व संस्कारित जल का अत्यल्प मात्रा में सेवन किया जा सकता है ।
  • स्वरभेद, श्वास-कास, हिक्का, आध्मान, अपक्व पीनस, पार्श्वपीड़ा, नवज्वर, स्थूलता, वात-कफ रोगों की अवस्था और वमनादि कर्म से सद्शुद्ध होने पर तथा तैलसिद्ध भोजन करने पर उष्ण जल का सेवन करना चाहिए ।
  • मुखशोष, श्रमजन्य थकावट, दाह–शरीर में गर्मी की अनुभूति, रक्तपित्त, वमन, मूर्च्छा-भ्रम-तन्द्रा, विदग्धता, विष अथवा मदिरा का सेवन, शारीरिक कृशता तथा पित्त दोष की अधिकता में सामान्य रूप से ठंडे जल का सेवन करना चाहिए । किन्‍तु जल शरीर के तापमान से अधिक ठंडा नहीं होना चाहिए ।
  • शरीर के मल, मुत्र, छींक, डकार, जंभाई, भूख, प्‍यास, आंसू, निद्रा आदि अधारणीय वेगों को जबरदस्‍ती प्रवृत्त करना अथवा रोकने की चेष्ठा नहीं करनी चाहिए ।
  • कान-नाक-दांत आदि में फसे मैल को बलपूर्वक नहीं निकालना चाहिए । सामने की रुखी हवा, धुल, धुप, औस का सेवन नहीं करना चाहिए । शरीर के अंगों को टेड़ा-मेडा करके अथवा टेड़े-मेढे आसन पर बैठना, सोना सर्वथा अहितकर होता हैं । अत: इन क्रियाओं का प्रयत्न पूर्वक त्याग करना चाहिए तथा थकान आने से पहले शरीर, वचन और मन की चेष्‍टा को भी रोक देना चाहिए ।
  • कपडे से मुंह ढके बीना छींकना, हंसना तथा जम्‍हाई नहीं लेनी चाहिए । सुक्ष्‍म वस्‍तु, सुक्ष्‍मदिप या तिव्र रोशनी तथा अपवित्र वस्‍तुओं को सतत नहीं देखना चाहिए ।
  • सायंकाल के समय भोजन, मैथुन, शयन, अध्‍ययन, चिंतन आदि नहीं करना चाहिए । ऋतुकाल में स्‍त्रीयों को सामने की ओर झुककर भारी वस्‍तु उठाना, शंख बजाना, आग तापना, अतिपरिश्रम करना तथा मैथुन वर्ज्‍य है ।
  • रात्रि में भोजनोंपरान्‍त शारिरिक क्रियामें अधिक संलिप्‍त न होकर, शुद्ध होकर वज्रासन में बैठ जप-ध्यान करते हुए अंत में योगनिद्रा का अभ्‍यास करना चाहिए । ठंडी और तेज वायु में शयन न करें और सोते समय मच्‍छरदानी का प्रयोग करें ।
  • रात्रि में सोने से पूर्व देशी गाय के शुद्ध घी की 4-4 बुंदें नाक में, कर्णपीडा में सुखोष्‍ण तैल की 2-2 बुंदें कान में डालकर सोना चाहिए । नेत्रदाह की स्थिति में गाय के शुद्ध घी का आंखों में अंजन करना चाहिए । शीतऋतु में सोने से पूर्व सैंधवयुक्‍त तैल से  सिने की मसाज कर सेंक करें तथा कान और सर पर शिरोवेष्‍टन बांधकर सोना चाहिए ।
  • अमावस एवं पौर्णिमा के समिपवर्ती दिनों में उपवास कर शरीर शोधन का यत्‍न करना चाहिए । लंघन पाचन द्वारा जीते गये शरीरगत दोषों के कुपित होने की संभावना रहती है । किन्‍तु शोधन के द्वारा दोषो की शुद्धि होने से दोषजन्‍य रोगों की उत्‍पत्ती पुन:नहीं होती । अत: ऋतु परीवर्तन के काल में शरीर का संशोधन आवश्‍यक है । [4]
  • शरीर के नाखुन, दाढी मुझ के बालों को लंबा नहीं रखना चाहिए तथा नहीं उन्‍हें बल पुर्वक निकालने का प्रयास भी नहीं करना चाहिए । सर पर अधिक भार का वहन भी नहीं करना चाहिए ।

मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य हेतु निर्देश :
  • व्‍यक्ति को हिंसा, चोरी, व्‍यर्थ का कार्य जिसका कोई फल न हो, पैशुन्‍य अर्थात चुगली, कठोर वचन, असत्‍य वचन, सभिन्‍नालाप, मार-पीट, दूसरे के अधिकार का छिंन लेना तथा विपरीत अर्थों का ग्रहण यह दस पाप कर्म का त्‍याग करना चाहिए ।
  • प्रत्‍यक व्‍यक्तिको रोग और शोक से पीडित, जीविका से हीन तथा अशक्‍त जन की शक्ति के अनुसार मदत करनी चाहिए । याचक का तिरस्‍कार नहीं करना चाहिए । जीव-जंतुओं को आत्‍मवत जानकर उन्‍हें कष्‍ट नहीं देना चाहिए । अपकार करनेवाले शत्रु के प्रति भी उपकार की भावना रखनी चाहिए ।
  • भाई-बंधुओं के रहते हुए अकेले सुख का उपभोग नहीं करना चाहिए । उचित काल में हितकर और विवाद रहित एवं स्‍पष्‍ट अर्थवाले वचनों को बोलना चाहिए ।
  • अपने आस-पास के व्‍यक्तियों से प्रसन्‍नचित्‍त होकर, सुंदर आचरण दिखाते हुए, कोमल वचन से बोलना चाहिए । शत्रु भाव से किसी भी वाक्‍य का उपयोग नहीं करना चाहिए ।
  • दुष्‍ट और दूराग्रही की सेवा नहीं करनी चाहिए ।[5]अपने से श्रेष्‍ठ व्‍यक्ति से विग्रह नहीं करना चाहिए । सभी जगह विश्‍वास नहीं करना चाहिए और सभी जगह शंका भी नहीं करनी चाहिए ।
  • सुख और दुख में मन स्थिर रखने का प्रयास करना चाहिए । ईष्‍या कारण में करनी चाहिए फल में नहीं । गुणग्राह्य स्‍वभाव को अपनाना चाहिए ।
  • व्‍यक्ति को आत्‍म कल्‍याण हेतु सबके कल्‍याण का भाव रखनेवाले मित्रों का संग और अकल्‍याण का भाव रखने वाले मित्रों का असंग करना चाहिए ।[6]
  • मदिरा का उत्‍पादन, क्रय विक्रय, भ्रम प्रचार अथावा किसी का शोषण वा हानी कर जीविका नहीं कमानी चाहिए ।
तो मित्रों ! यह थे महर्षि वाग्‍भट के निर्देश । जो कि हमारे लिए आचरण का वह समिकरण प्रस्‍तुत करते है, जहां शुभ ही शुभ घटीत होना निश्चित है । अत: उपरोक्‍त दिनचर्या के अनुक्रम का अनुसरण करते हुए आप स्‍वास्‍थ्‍य लाभ ले सकते है ।




[1] अभ्‍यंग माचरे नित्‍य
[2] अर्धशकत्‍या निषेव्‍यस्‍तु बलिभि स्निग्‍ध भोजिभी।
[3] हाथ, पैर, मूंह, गर्दन, उपस्‍थ, आंखे आदि धो लेना ।
[4] दोषा कदाचित्‍कुप्‍यन्ति त्रिता लंघन पाचनै:। येतु संशोध्‍नै: शुद्धा न तेषां पुनरूद्भव:।।
[5] हीनानार्यातिनिपुणसेवा विग्रह्यतमुत्‍तमै ।
[6] भक्‍तया कल्‍याण मित्राणी सेवे तर दूरग:। 

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