निरायमय संचेतना
समाज में जिस तरह के नकारात्मक परिवर्तन आये है, उस आधार पर विधि-व्यवस्था और मानव के विचार एवं जीवनशैली भी नकारात्मकता का आकार ग्रहण कर चुंकी है। शायद यही विकास और विकसित होने की परिभाषा है। इस परिभाषा ने क्या नहीं बदला हैं ? ...मन भी बदला। माथा भी बदला और देखते-देखते इस धरती की काया भी बदल ड़ाली है।
भोग-बहुभोग की लालसा ने को उत्तरोत्तर अभाव की मानसिकता के घेरों में सिमट लिया है। चारो तरफ लुट मची है। जल प्रवाह सिकुड रहे हैं। जंगलों का दायरा सिमट रहा हैं। जुगून-पंतगे-केंचुए सब कही खो से रहें हैं। बहुमूल्य वनस्पतीयां, जीव-जंतुओं की प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं। साथ ही साथ अंतरिक खुशहाली का अनुभव भी गुम हो रहा है। बच गया है, तो वह है.. नैसर्गिक संसाधनों की कमी का आभास और भोग-अतिभोग के लिए प्रतिस्पर्धा और प्रतिहिंसा के साथ-साथ उपभोग के नये-नये रास्तों और नये-नये उपकरणों का निजात।
एक तरफ असिम संग्रह है और दूसरी ओर अभाव ग्रस्तों का संघर्ष। एक तरफ प्राकृतिक संसाधनों की कमी का आभास है और दूसरी ओर भोग-बहुभोग हेतु कृत्रिम उपभोग के उपकरणों का सजता अंबार है। जिससे न हवा शुद्ध रही, न सिकूडते जल प्रवाह, न जंगलों का अस्तित्व, न जानवरों का वजुद और अब तो न आकाश पाक-साफ बचा है। यह स्थिति ऐसी मानसिकता का परिचय देती है जो निश्चित ही स्वस्थ्य नहीं है। ऐसी रूग्न मानसिक स्थिति वाले समाज का संज्ञान क्या होगा ? यह प्रश्न कम और मानव के वजूद पर गहराता संकट अधिक है।
इसी संकट का उभरा हुआ एक रूप है और वह है मानव समाज के तन और मन का स्वास्थ्य। अवलोकन करता हूँ तो देखता हूँ कि समाज में स्वास्थ्य की समस्या दिनों दिन विस्तार ले रही हैं। कारणों की मीमांसा की जाये तो अधिकतर बिमारियां सोच-विचार और जीवनशैली से आसन्न रोगों का प्रतिरूप प्रकट होती है। उनसे निजात पाने अनेक शोध हो भी रहे है। किन्तु बाजार के आधार पर स्वास्थ्य और स्वस्थ रहने की प्रक्रिया को जहां विकसित किया गया है, वहा जनहित की तार्किकता को महत्व देते हुए, उने बाजार का हिस्सा बनने से कैसे बचाया जायेगा? यह प्रश्न भी रह रह कर मेरे मन में उठता रहा है।
निश्चित ही हमारे समाज का शरीर और चेतना दोनों स्वस्थ नहीं है। मृतकों और मुच्र्छितों का सौभाग्य ही है कि उनें अज्ञान और अस्वास्थ्य पीड़ा नहीं देता। किन्तु समाज में कुछ ऐसे भी लोक मौजुद है जिनकी चेतना अभी जागृत है। वह समाज के अज्ञान और अस्वास्थ्य से पिडित होते है। ऐसे ही लोगों के साथ मैंने फरवरी 2013 को ग्वालियर के प्राकृतिक परिवेश में एक संगोष्ठी का आयोजन किया था। ‘प्राकृतिक स्वस्थ्य जीवनशैली और पर्यावरण’ यह इस संगोष्ठी का विषय था। संगोष्ठी का उद्देश्य "सजीव सृष्टी पर मंडराते संकट और मानव के मनोदैहिक स्वास्थ्य समस्याओं का समाधान हमारे सोचने, समझने, परखने और जीवन की मौजुद शैली के बदलाव में है" यह प्रतिपादित करना था। इसलिए इस संगोष्ठी/सेमिनार में बाह्य पर्यावरण के बदलाव की अपेक्षा अंतरिक अर्थात मन और माथा के पर्यावरण के बदलाव पर विस्तार से विमर्श हुआ।
आधुनिकता की ललक क्रमिक रूप से मानव को प्राकृतिक विचारधारा और प्राकृतिक जीवनशैली से दूर ले जा रही है, वहा स्वास्थ्य का संकट अधिक गहरा रहा हैं। ऐसी स्थितिओं में मानव और प्रकृति के मध्य सहअस्तित्व का जो संबंध है उसे जानने, समझने, परखने और तद् अनुरूप जीने की आवश्यकता को अनुभव करवाने के लिए यह एक संवाद था। यह संवाद सफल भी रहा, सार्थक भी रहा और इस प्रकार के संवाद की पुन: मांग भी रही।
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