प्राण साधाना का दार्शनिक विवेचन
प्राचीन काल दार्शनिक विकास की आरंभिक अवस्था का काल रहा। इस काल में दृश्यमान जगत (मेटाफिजिक्स) की सूक्ष्म मीमांसा से सांख्य दर्शन ने दार्शनिक प्रश्नों का हल ढूंढ़ने का प्रयास किया। जिसके फल स्वरूप विश्व के मूल में मौजूद तत्वों अर्थात दृश्यमान वस्तुओं की पहचान कर उनकी संख्या निर्धारित करने का प्रयास हुआ। जगत में विद्यमान रुपात्मक और अरूपात्मक सत्तायें आकाश , वायु , अग्नि , जल एवं पृथ्वी। इन सत्ताओं के विषय शब्द , स्पर्श , रुप , रस , गंध। इन से निर्मित शरीर और उनकी पंच ज्ञानेन्द्रियाँ - कान , नाक , त्वचा , नेत्र और जिह्वा तथा पंच कर्मेद्रियाँ हात , पैर , उपस्थ , पायु , वाक् और मन , बुद्धि , चित्त अहंकार के अलावा एक परम चैतन्य सत्ता अर्थात पुरुष , इन सबको सांख्य ने जड़ और चैतन्य प्रकृति यह संज्ञा देकर उनका वर्गिकरण करने का प्रयास किया। महाभारत आदि प्राचीन साहित्य में उपलब्ध साक्ष के आधार पर प्राचीन सांख्य ईश्वर को 26 वाँ तत्त्व मानता रहा है। इस दृष्टी से सांख्य ईश्वरवादी दर्शन रहा है। परन्तु परिवर्ति सांख्य में ईश्वर का कोई स्थान नहीं है। सांख्य ने सृष्टी की उत्त्पति